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गुरुवार, 31 जनवरी 2013

बाल श्रम, आप और हम - ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम !

फिल्म इस्माइल पिंकी ने पिंकी को भले ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया फिर पिंकी की सहायता करने वालों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई बावजूद इसके आज पिंकी का क्या हुआ वह क्या कर रही है, यह अब शायद ही कोई जानता हो । आज भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पिंकी जैसी अनेकों बालक बालिकाएं हैं जिन्हे बचपन में ही स्कूल जाने की बजाय काम पर लगा दिया जाता है जबकि एक तरफ सरकार जहां बच्चों को कुपोषण से बचाने, उन्हे साक्षर करने के दावे कर रही है यहीं नहीं उसने बाल श्रम पर भी रोक लगाई है, बावजूद इसके बाल श्रम बदस्तूर जारी है। हमारे आस पास ही देख लीजिये आपको ऐसी न जाने कितनी पिंकी और छोटू मिल जाएंगे ! गली के नुक्कड़ की चाय की दुकान हो या हाइवे का ढ़ाबा यह छोटू आप को हर जगह मिल जाता है आप चाहे या न चाहे ... और तो और कभी कभी तो आपके घर तक आ जाता है जैन साहब की दुकान से आप के महीने के राशन की 'फ्री होम डिलिवरी' करने ... कैसे बचेंगे आप और हम इस से ... कभी सोचा है !!??

आज हम बात कर रहे हैं बलिया की एक पांच वर्षीय छोटी और अत्यंत भोली भाली सीमा की, जो स्कूल में जाने की बजाय आज अपने सिर पर लकड़ी का गठ्ठर ढोने व बकरियां चराने को मजबूर है। कहने को तो उसका दाखिला आंगनबाड़ी केंद्र में कराया गया है लेकिन वह जाती कब है इसकी जानकारी न तो आंगनबाड़ी केंद्र की संचालिका दे पा रही है और न ही उसके अभिभावक। अपने माता-पिता के कार्यो में बचपन से ही सहयोग कर रही सीमा को भी स्कूल जाने पढ़ने खिलने का शौक है लेकिन मासूम सीमा अपनी गरीबी का दर्द बयां करने लायक भी तो नहीं। हाल ही मे हमने भारतीय गणतंत्र का 64वां वार्षिक समारोह मनाया हैं लेकिन हम बचपन में अपने औकात से अधिक बोझ ढो रहे उन मासूमों की खुशहाली के लिए क्या कर रहे हैं यह बताने वाला कोई नहीं। सरकार ने कानून बनाया है, दावे भी करती रही है लेकिन प्रभुनाथ की बिटिया सीमा जैसी बहुतेरे बच्चे आज कम उम्र के बावजूद परिवार का बोझ ढोने को विवश हैं। 

पिछले दिनों फेसबूक पर एक तस्वीर देखी थी ... यहाँ लगा रहा हूँ ... आप सब भी देखिये ... और संभव हो तो इस तस्वीर को बदलने की ओर एक प्रयास जरूर करें !

सादर आपका 

शिवम मिश्रा

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जलपरी बुला अब पानी में नहीं उतर सकतीं कभी

रणधीर सिंह सुमन at लो क सं घ र्ष !
जलपरी बुला अब पानी में नहीं उतर सकतीं कभी, गलत इंजेक्शन की वजह से! *सातों समुंदर तैर कर आयी भारत की विश्वविख्यात जलपरी बुला चौधरी अब अपने घर के तालाब में भी तैर नहीं सकती। गलत इंजेक्शन से ​​उनकी जान तो बच गयी, पर पानी में उतरने की मनाही है। इससे उसके प्राण संशय का खतरा है।पूर्व विधायक अंतरराष्ट्रीय तैराक बुला चौधरी​​ के साथ हुए हादसे से साफ जाहिर है कि इस देश में चिकित्सा के नाम पर क्या कुछ हो जाता है और लोग कैसे गलत इलाज से बेबस हो जाते हैं।पानी में उतरते ही उनकी धड़कनें धीमी हो जाती हैं।दुनियाभर के खेल प्रेमी इस बहादुर तैराक के करतब से परिचित हैं। लेकिन हालत यह है कि चिकित्सकों ... more »

असमंजस..

shikha varshney at स्पंदन SPANDAN
कल रात सपने में वो मिला था कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी कभी कहता यह कर, कभी कहता वो कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो फिर तुनकता और करने लगता जिरह आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज मारती रहती हूँ उसे पल पल यूँ ही, ऐसे ही, किसी के लिए भी। मैं तकती रही उसे, यूँ ही निरीह, किंकर्तव्यविमूढ़ सी क्या कहती, कैसे समझाती उसे कि कितना मुश्किल होता है यूँ उसे दरकिनार कर देना सुनकर भी अनसुना कर देना और फिर भी छिपाए रखना उसे रखना ज़िंदा अपने ही अन्दर रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ जो त... more »

विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली (इंटरनेशनल बुक फेअर )

Anju (Anu) Chaudhary at अपनों का साथ
आप सब सादर आमंत्रित हैं ......विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली मैं,अंजु चौधरी अपना दूसरा कविता संग्रह "ए-री-सखी " और स्वत्रंत संपादन के क्षेत्र में कदम रखते हुए ''अरुणिमा'', एवं मुकेश कुमार सिन्हा जी और रंजू भाटिया जी के साथ मिल कर हम लोगों का दूसरा साँझा काव्य संग्रह ''पगडंडियाँ''के विमोचन के अवसर पर हम आप सबको दिल से आमंत्रित करते हैं .आपकी सब की उपस्थिति और शुभकामनाएँ हमें संबल देंगी और नव सृजन के लिये प्रोत्‍साहित करेंगी. दिल्ली के प्रगति मैदान में ४ फरवरी २०१३ से शुरू हो रहें विश्व पुस्तक मेला (इंटरनेशनल बुक फेअर )में ,१० फरवरी २०१३ का दिन तीनों ही पुस्तकों के विमोचन के लिए निश्चि... more »

"वो" ने खूब हँसाया

भावना पाण्डेय at रूद्र
हा हा हा मज़ा आ गया। मैने पिछली दो एक ब्लाग पोस्ट पर "वो" के बाबत विचार लिखे थे। फेसबुक पर "वो" कौन है यह बताया भी मगर ये जानकर हसीँ रुक नहीँ रही की "वो" से किसने खुद को/किसी को समझा ।कसम से एसे लोग भी न "एक आइटम " ही हैँ। अपनेआप की/किसी की हमारी लाईफ मेँ कोई अहमियत भी है ये समझने की गफ़लत मेँ जीते हैँ।मगर क्यू भई ?

कलम तुम उनकी जय बोलो...

नजर टेढ़ी जवानो की भिची जो मुट्ठिया हो फिर भगत आजाद अशफाको की रूहे झूम जाती है, जय हिंद के जयघोष से उट्ठी सुनामी जो तमिलनाडु से लहरे जा हिमालय चूम आती है मेरी धरती मेरा गहना इसे माथे लगाउंगा जब तक सांस है बाकी इसी के गीत गाउंगा, गुजरी कई सदिया मगर इक वास्ते तेरे हजारो बार आया हू हजारो बार आउंगा कहू गंगा कहू जमुना कहू कृश्ना कि कावेरी रहू कश्मीर या गुजरात या बंगाल की खाडी, मै हिन्दी हू या उर्दू हू कन्नड हू कि मलयालम मै बेटा हू सदा तेरा तु माता है सदा मेरी तेरे नगमे मेरे होठों पे कलमा के सरीखे है तेरे साए हूँ इस बात का अभिमान कर... more »

मिलिये छोटू से ...

शिवम् मिश्रा at जागो सोने वालों...
मिलिये छोटू से ... इस की इस मुस्कान पर मत जाइए साहब ... बेहद शातिर चीज़ है यह ... "देखन मे छोटो , घाव करे गंभीर" टाइप ... इस से बचना नामुमकीन है ! आप कितनी भी कोशिश कर लीजिये ... इस से आप नहीं बच सकते ... दावा है मेरा !! गली के नुक्कड़ की चाय की दुकान हो या हाइवे का ढ़ाबा यह छोटू आप को हर जगह मिल जाता है आप चाहे या न चाहे ... और तो और कभी कभी तो आपके घर तक आ जाता है जैन साहब की दुकान से आप के महीने के राशन की 'फ्री होम डिलिवरी' करने ... कैसे बचेंगे आप और हम इस से ... कभी सोचा है !!?? ज़रा सोचिएगा ... समय मिले तो ... वैसे जरूरी नहीं है !====================== *जागो सोने वालों ...*

लाला लाजपत राय

Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता at रेत के महल
पंजाब केसरी के बारे में हम सब ही जानते हैं । 28 जनवरी को जन्मे लालाजी एक लेखक और अडिग नेता थे । कोंग्रेस के नरम रवैये के साथ सहमत न रहने से, लालाजी ने कोंग्रेस के "गरम दल" का निर्माण किया, जो "लाल बाल पाल" समूह भी कहलाया ( गरम दल में लाला लाजपत राय के साथ बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे) साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में पुलिस लाठीचार्ज से ये बुरी तरह घायल हुए और 17 नवम्बर

स्त्री तेरी यही कहानी

बचपन में पढ़ा मैथली शरण गुप्त को स्त्री है तेरी यही कहानी आँचल में है दूध आँखों में है पानी वो पानी नहीं आंसू हैं वो आंसू जो सागर से गहरे हैं आंसू की धार एक बहते दरिया से तेज़ है शायद बरसाती नदी के समान जो अपने में सब कुछ समेटे बहती चली जाती है अनिश्चित दिशा की ओर आँचल जिसमें स्वयं राम कृष्ण भी पले हैं ऐसे महा पुरुष जिस आँचल में समाये थे वो भी महा पुरुष स्त्री का संरक्षण करने में असमर्थ रहे मैथली शरण गुप्त की ये बातें पुरषों को याद रहती हैं वो कभी तुलसी का उदाहरण कभी मैथली शरण का दे स्वयं को सिद्ध परुष बताना चाहते हैं या अपनी ही जननी को दीन हीन मानते हैं ऐसा है पूर्ण पुरुष का अस्तित्व...

हँसी को जिंदा रखना है तो ....

सदा at SADA
सच कहो ऐसा कोई होता है क्‍या ??? दर्द में मुस्‍कान :) घायल अन्‍तर्मन बड़ा ही विरल क्षण रहा होगा जब विधाता ने तुम्‍हारे मन को ये हौसला दिया होगा स्‍व का ओज़ लिये तुम एक नई दिशा चुनती सच ही तो है रूपांतरण में दमन नहीं बोध होता है जैसे वैसे ही तुमने चुनौतियों से सीखा है हर दिन कुछ नया करना तुम्‍हारी जीवंत विचार शक्ति प्रेरित करती है और एक नई ऊर्जा का संचार करती है ... कितना खरा था तुम्‍हारा व्‍यवहार स्‍नेह के बदले में तुमने समर्पण सीखा मान के बदले में तुमने आशीषों का खजाना लुटा दिया दोनो हाथों से, बदले में क्‍या मिला ये जब भी पूछा तुम टाल गई या बदल दी दिशा बातों की .... सच क... more »

'विश्वरूपम' - बिना मतलब का विवाद

'विश्वरूपम' पर बिना मतलब का विवाद उठाया जा रहा है। मामला कोर्ट में है, जिसे दोनों पक्षों की बात सुनकर फैसला सुनाना चाहिए। राजनितिक कारणों से अथवा पब्लिसिटी के लिए विवाद करना, विरोध स्वरुप जगह-जगह तोड़-फोड़ करना, धमकियाँ देना घटिया मानसिकता है। किसी भी बात का विरोध करने अथवा अपना पक्ष रखने का तरीका हर स्थिति में लोकतान्त्रिक और कानून के दायरे में ही होना चाहिए। मैंने 'विश्वरूपम' नहीं देखी, इसलिए फिल्म पर टिपण्णी करना मुनासिब नहीं समझता हूँ, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढोल पीटने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से इतना ज़रूर मालूम करना चाहता हूँ कि दूसरे पक्ष को सुने बिना अपनी बात ... more »

सब काला हो गया है..

कुछ नहीं है, कुछ भी तो नहीं है... बस अँधेरा है, छितरा हुआ, यहाँ, वहाँ.. हर जगह... काले कपडे में लिपटी है ये ज़िन्दगी या फिर कोई काला पर्दा गिर गया है किसी नाटक का... इस काले से आसमान में ये काला सूरज काली ही है उसकी किरणें भी चाँद देखा तो वो भी काला... जो उतरा करती थी आँगन में अब तो वो चांदनी भी काली हो गयी है... उस काले आईने में अपनी शक्ल देखी तो आखों से आंसू भी काले ही गिर रहे थे.. डर है मुझे, कहीं इस बार गुलमोहर के फूल भी तो काले नहीं होंगे न....
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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

बुधवार, 30 जनवरी 2013

आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम - ४०० वीं ब्लॉग बुलेटिन

४०० वाँ बुलेटिन पर जब हमको तलब किया गया त हम सोचे कि का लिखा जाए. आजकल ब्लॉग पर घूमना आऊर लिखना-पढना भी बहुत कम हो गया है. जेनरल ट्रेंड है, मगर हमरे लिए ब्लॉग से दूर होने का कारन हमरा बेक्तिगत परेसानी है. लेकिन का करें, हम त खुद्दे कहते हैं कि अपना तकलीफ का बिज्ञापन कभी नहीं करना चाहिए, काहे कि इसका कोनो मार्केट नहीं होता है. इसलिए बिना बिज्ञापन के आप सब लोग का हाथ जोडकर पूरा बुलेटिन टीम के ओर से धन्यवाद करते हैं कि आप लोगों के प्यार से आज बुलेटिन का चार सौवाँ अंक पर्कासित हो रहा है और ई नंबर अइसहीं बढता रहेगा अगर आप लोगों का प्यार बना रहा.

हाँ त हम का कह रहे थे? कहाँ कहे थे कुछ, कहने जा रहे थे कि बच्चा में कहानी सुनते थे कि “बहुत पुराना ज़माना का बात है” अऊर बुजुर्ग लोग हमेसा कहते हैं कि “हमारा ज़माना में अइसा होता था”- तब हम सोचे कि आखिर ई पुराना ज़माना का होता है. बस एगो आइडिया आया दिमाग में कि चलिए ब्लॉग जगत में भी देखें कि पुराना ज़माना कैसा था. 

अब ज़माना एतना फास्ट हो गया है कि साल-दू साल का टाइम भी पुराना ज़माना लगने लगता है. बहुत जल्दीबाजी में कुछ ब्लॉग से उनका एही तारीख के आस-पास लिखा हुआ पोस्ट आपके लिए लेकर आये हैं. मगर लगता है कि एक अंक में इसको समेटना बहुत मोसकिल काम है. काहे कि बहुत सा लोग छूट गया है.
तो जो लोग हमरे दिल के बहुत करीब हैं मगर इसमें नहीं हैं, उनका चर्चा जल्दिये करेंगे. अभी बानगी के तौर पर पेश है आज का बुलेटिन इस उम्मीद के साथ कि आपका आशीर्बाद अइसहीं बना रहेगा!!

-                                                                                                                                                                                                                                   -  सलिल वर्मा

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भगवान ने इनकी सुनी और भेजा इन्हें बस्तर के जंगलों में... जंगलों के फूल के रूप में. डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र की इच्छा जो उन्होंने न सिर्फ प्रकट की, बल्कि आमंत्रित भी किया हम सबों को मिलने.. ३० जनवरी २०११ की उनकी कविता “बस्तर की अभिव्यक्ति” पर:

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अपनी इस हालत के हम खुद भी हैं ज़िम्मेदार,
हमदर्दी के याचक बनकर रहे उन्हीं के द्वार,
जिन्हें हमारी खबरों से अखबार चलाने हैं
जीवन के यह राज़ रहे अबतक अनजाने हैं!
“अनजाने से सच” शीर्षक कविता से ‘वी, द पीपुल’ की ताकत का एहसास दिलाती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की यह अभिव्यक्ति ०८ जनवरी २०११ को उनके ब्लॉग “यह मेरा जहाँ” से:

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छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
छत्तीसगढ़ का यह लोकगीत राहुल सिंह जी के आलेख “बिलासा” का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने उस इतिहास को याद किया है जो बिलासपुर की पहचान है. उनके ब्लॉग “सिंहावलोकन” से... प्रकाशन ३१ जनवरी २०११.

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दिगम्बर नासवा जी का ब्लॉग “स्वप्न मेरे” अपनी ग़ज़लों, कविताओं और क्षणिकाओं के लिए सबके मन में बसा है. और खुद इनका कहना है
है और बात तेरे दिल से हूँ मैं दूर बहुत 
तुम्हारी मांग में सिन्दूर बनके सजता हूँ |
यह गज़ल है २९ जनवरी २००९ की जिसका शीर्षक है “सिन्दूर बनके सजाता हूँ.”

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इतिहास की घटनाओं और पौराणिक कथाओं को देखने का एक नया सन्दर्भ प्रस्तुत करतीं, नयी कविताओं का ज़िक्र हो और एक नाम जुबान पर न आये तो वह व्यक्ति ब्लॉग जगत में नया होगा. उपदेश और पर उपदेश कुशल बहुतेरे को गीता के उपदेश के परिप्रेक्ष्य में दिखा रही हैं रश्मि प्रभा जी, आज से चार साल पहले यानि २८ जनवरी २००८ को “मेरी भावनाएं” ब्लॉग पर. कविता का शीर्षक है “सौभाग्य”

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 धरती में पात झरें, अम्बर में धूल उडें
अमवां में झूले लागल बौर, आयो रे बसंत चहुँ ओर.
यह गीत...कविता... जो भी कहें, “बेचैन आत्मा” को क्या अंतर पडता है. अपने मित्र श्री देवेन्द्र पाण्डेय के ब्लॉग का यही नाम है और ३१ जनवरी २०१० को “आये रे बसंत चहुँ ओर” के साथ उन्होंने एलान कर दिया था वसंतोत्सव का. इस वर्ष तो अभी भी शीत का प्रकोप बना हुआ है. आप आनन्द लीजिए वसंत की वासंती कविता का.


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मैं दहेज़ लेकर शादी करने वालों की बारात नहीं जाता। चाहे वह घर परिवार की शादी हो चाहे समाज की। और यह काम मैं अपने विद्यार्थी जीवन से कर रहा हूं। इसके दो फ़ायदे हुए। एक हमारे जानने वाले हमारे सामने इसकी ग्लोरिफ़िकेशन से बचते थे, दूसरे, कुछ लोग ही सही, प्रेरित होकर दहेज़ नहीं लेते थे/हैं।
यह सिद्धांत है श्री मनोज कुमार का. उनके ब्लॉग "मनोज" पर इसी बात को एक सशक्त कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया उन्होंने ३१ जनवरी २०१० को, कविता “धन्य बिटिया निशारानी”

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“विदेशी बैंकों में जमा पैसा गरीबों का है और वो वापस आना चाहिए!”
“अपनी ज़िंदगी के दस साल मुझे दे दीजिए, मैं आपको फखे करने का मौक़ा दूंगा!”
“शिकायत न करें – सिस्टम में बदलाव लाएं!”
ये कुछ वक्तव्य हैं युवराज राहुल गांधी के. और ऐसे ही उनके कई बयानों की खबर ले रहे हैं रविनार अपने ब्लॉग "मीडिया-क्रुक्स" पर ३१ जनवरी २०११ को. पोस्ट का शीर्षक है – Rahul Gandhi – Tears of a clown prince!”

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२६ जनवरी २०१० का दिन और अली सय्यद साहब छुट्टी पर – “आज  छुट्टी का दिन है और मैं घर पर हूँ पर बीबी दुखी नहीं ... दूसरों की बीबियां ब्लागिंग के बारे में क्या सोचतीं हैं पता नहीं ? पर अपनी बेगम बेहद खुश होती हैं , खास तौर पर अगर छुट्टी का दिन हो और मैं ब्लागिंग से जूझना चाहूं तो उनका चेहरा खिल उठता है ! उनकी खुशियों को ध्यान में रखते हुए मैं भी एडजस्टमेंट करता हूँ!
उनके ब्लॉग “उम्मतें” से – “समंदर से जुडी हुई आँखें और ...”

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तुम्हारे उठने और 
मेरे गिरने के बीच 
बहुत कम फासला था. 
बहुत छोटी सी थी ये जमीं 
या तो तुम उठ सकते थे 
या मै ही
शिखा वार्ष्णेय जी की यह कविता है २९ जनवरी २०१० के पन्ने से. उनके ब्लॉग “स्पंदन”  से! शीर्षक है “मेरागिरना तेरा उठाना”.

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अपने कॉलेज के ज़माने की एक कविता को याद करते हुए, जो शायद उनके ब्लॉग जगत में प्रवेश के बाद उनकी दूसरी पोस्ट रही थी. उनका मानना है कि आज भी इस कविता का दर्द जस का तस है.. कुछ भी नहीं बदला
हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे, वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ
रश्मि रविजा जी के ब्लॉग “अपनी, उनकी, सबकी बातें” से ३१ जनवरी २०११ की पोस्ट “आँखों मेंव्यर्थ सा पानी”

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

बीटिंग द रिट्रीट ऑन ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों ,
प्रणाम !


आज दिल्ली के विजय चौक पर हुये 'बीटिंग द रिट्रीट' के साथ ही इस साल के गणतंत्र दिवस समारोह का समापन हो गया !
बीटिंग द रिट्रीट गणतंत्र दिवस समारोह की समाप्ति का सूचक है। इस कार्यक्रम में थल सेना, वायु सेना और नौसेना के बैंड पारंपरिक धुन के साथ मार्च करते हैं। यह सेना की बैरक वापसी का प्रतीक है। गणतंत्र दिवस के पश्चात हर वर्ष 29 जनवरी को बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। समारोह का स्थल रायसीना हिल्स और बगल का चौकोर स्थल (विजय चौक) होता है जो की राजपथ के अंत में राष्ट्रपति भवन के उत्तर और दक्षिण ब्लॉक द्वारा घिरे हुए हैं। बीटिंग द रिट्रीट गणतंत्र दिवस आयोजनों का आधिकारिक रूप से समापन घोषित करता है। सभी महत्‍वपूर्ण सरकारी भवनों को 26 जनवरी से 29 जनवरी के बीच रोशनी से सुंदरता पूर्वक सजाया जाता है। हर वर्ष 29 जनवरी की शाम को अर्थात गणतंत्र दिवस के बाद अर्थात गणतंत्र की तीसरे दिन बीटिंग द रिट्रीट आयोजन किया जाता है। यह आयोजन तीन सेनाओं के एक साथ मिलकर सामूहिक बैंड वादन से आरंभ होता है जो लोकप्रिय मार्चिंग धुनें बजाते हैं। ड्रमर भी एकल प्रदर्शन (जिसे ड्रमर्स कॉल कहते हैं) करते हैं। ड्रमर्स द्वारा एबाइडिड विद मी (यह महात्मा गाँधी की प्रिय धुनों में से एक कहीं जाती है) बजाई जाती है और ट्युबुलर घंटियों द्वारा चाइम्‍स बजाई जाती हैं, जो काफ़ी दूरी पर रखी होती हैं और इससे एक मनमोहक दृश्‍य बनता है। इसके बाद रिट्रीट का बिगुल वादन होता है, जब बैंड मास्‍टर राष्‍ट्रपति के समीप जाते हैं और बैंड वापिस ले जाने की अनुमति मांगते हैं। तब सूचित किया जाता है कि समापन समारोह पूरा हो गया है। बैंड मार्च वापस जाते समय लोकप्रिय धुन सारे जहाँ से अच्‍छा बजाते हैं। ठीक शाम 6 बजे बगलर्स रिट्रीट की धुन बजाते हैं और राष्‍ट्रीय ध्‍वज को उतार लिया जाता हैं तथा राष्‍ट्रगान गाया जाता है और इस प्रकार गणतंत्र दिवस के आयोजन का औपचारिक समापन होता हैं।
वर्ष 1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम को अब तक दो बार रद्द करना पड़ा है, 27 जनवरी 2009 को वेंकटरमन का लंबी बीमारी के बाद आर्मी रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में निधन हो जाने के कारण बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। वह देश के आठवें राष्ट्रपति थे और उनका कार्यकाल 1987 से 1992 तक रहा। इससे पहले 26 जनवरी 2001 को गुजरात में आए भूकंप के कारण बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया था।

आज शाम को हुये इस कार्यक्रम को नीचे दिये वीडियो पर देख सकते है ... यह वीडियो दूरदर्शन के यू ट्यूब चैनल से लिया गया है ... इस साल दूरदर्शन ने यू ट्यूब पर बीटिंग द रिट्रीट कार्यक्रम का सीधा प्रसारण भी किया था !



आइये अब आपको ले चलता हूँ आज की बुलेटिन की ओर ...

सादर आपका

शिवम मिश्रा

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दिखाए वक्त ने यहाँ मंजर कैसे-कैसे ...!!! दामिनी

दिल्ली के चर्चित घृणित एवं वीभत्स कांड से सबक लेना चाहिए

अंग्रेज़ों का आगमन

प्रार्थना

नाबालिग

एक जानकारी गौरेया के बारे में।

तेरे आने से

मेरी माँ ने कहा है

कार्टून कुछ बोलता है - पड़ोसी मेहरबान तो ....

उलझे रिश्तों को सुलझाने का जज़्बा!

एक स्वर होने का आह्वान ... (7)

लागी छूटे न

'बीटिंग द रिट्रीट'

बोलती कहानियाँ: अपनों ने लूटा - डा. अमर कुमार

कौन सा भारत,किसका भारत?

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 जय हिन्द !!!

जय हिन्द की सेना !!!

सोमवार, 28 जनवरी 2013

फेसबुक - कुछ हंसी,कुछ अभिव्यक्ति (कहीं खो न जाये)




लिखा बहुत लिखा ---- 
देखा,सुना,महसूस किया 
सोच से ही परे है यह ज़िन्दगी 
तो यूँ ही - कुछ इधर की,कुछ उधर की 
- ढूंढना है,कई तथ्य मिलेंगे ....

                रश्मि प्रभा  



Rashmi Prabha
· 
बहुत मुश्किल है टिप्पणी देना ...

लगता है विद्यार्थी हो गए हैं 
रोज लिखो,पढो ... और संक्षेप में विचार दो 
....
सुन्दर - 10 में 1 (परीक्षक ने देखा ही नहीं)
बढ़िया - 10 में 4 (सरसरी निगाह पड़ी है)
व्याख्यित विचार - 10 में 9 (पढ़ा है और विचार दिए हैं)
गहन - डिस्टिंक्शन (समझ से परे)

गौरतलब बात है 
कि - बचपन से लेकर युवा तक डांट पड़ी 
'पढो पढ़ो ......
और पन्त की प्रथम रश्मि भी डराती थी 
जब आता था प्रश्न - इस कविता का आशय अपने शब्दों में लिखें"
.......... क्या लिखें !!!
कभी देखा है अपनी कविता का आशय ?
बहुत कम इतने महीन लोग हैं 
जो वही आशय समझे 
जो हमने सोचकर लिखा है !
...
और इससे परे एक और बात है 
कि ..... लिखने पढने से अलग 
ऑफिस है,किचेन है 
दुनियादारी है,बीमारी है 
और ब्लॉग एक ऑनलाइन लाइब्रेरी है 
.... सबको पढ़ना - उस पर लिखना !!!
......
दाल में जीरा,प्याज,हींग की बजाय 
शब्दों की छौंक लग जाती है 
और घर में सब हिंदी साहित्य की रूचि नहीं रखते 
तो शब्दों से छौंकी चटक दाल 
उन्हें फीकी लगती है 
और उनकी शिकायत होती है -
- हम कविता,कहानी नहीं 
ज़िन्दगी हैं ............ हमें भी कुछ सुनना है 
.........

अब .... किस किस को सुनिए .....
है न मुश्किल ?


Ranju Bhatia
तेज तपती धूप भी
अक्सर राहत दे जाती है
उस दिल को
जो जानता है
कोई साया साथ तो है
कम से कम
ज़िन्दगी के इस तन्हा सफ़र में !!# रंजू ..कुछ यूँ ही अभी अभी :)

Sonal Rastogi
अंगड़ाई की कुण्डी खोल
चिड़ियों सा चहचहाते हुए 
देखा है क्या कभी तुमने 
सुबह को गुनगुनाते हुए ...

अवन्ती सिंह आशा
हर कुछ महीनों बाद में अपनी मित्र मण्डली से उन लोगों को हटा देती हूँ जिन्हें देख कर लगता है के ये सिर्फ मित्र सूचि में है पर मित्र नहीं है ,जिनसे हमारे विचार या भावनाएं मेल नहीं खाती मुझे नहीं लगता वे मित्र होते है ,कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जिस से मित्रता शब्द को मायने मिले ,जब ऐसा नहीं है तो मित्र सूचि में रहने न रहने से क्या फर्क पड़ता है ,मित्र संख्या बढ़ाने में मेरा विशवास नहीं है ,कुछ लोगों को मित्र सूचि से निकाला है पिछले हफ्ते .उन में से एक को काफी बुरा लगा शायद, उन के msg. ऐसे ही लगा , फेसबुक पर ब्लॉग पर किसी का खूब नाम हो ये अच्छी बात है पर यदि मुझे वो अपने मित्र न लगें और मित्र सूचि से उन्हें हटा दिया जाए तो इसमें किसी का अपमान किया ऐसा नहीं माना जा सकता ,मुझे भी कोई हटा सकता है ,मुझे कोई तकलीफ नहीं इस से ,फेसबुक पर ये बहुत ही आम बात है और इसे सहज भाव से स्वीकारना चाहिए।

Rashmi Sharma
दरअसल उसने कहा था
दि‍न शुभ हो...शामें अच्‍छी
कोरी रही रात ने की मुझसे
बेइंतहा शि‍कायतें
मेरी हथेली में कैद है उसका चुंबन
और 
दि‍न-रात से परदेदारी है मेरी......

Ashok Saluja - 28/01/13
आज हमारी शादी की ४४ वीं वर्षगाँठ है .....
और ये जाना... और समझा है कि..
Everything is okay in the end. 
If it's not okay,
then it's not the end.
---unknown

Rajiv Chaturvedi
‎"जीवन का उद्देश्य है "विकिरण" और इसी विकिरण की प्रक्रिया यानी लघु से वृहद् का विस्तार ही ब्रम्ह है ..."ब्रम्ह" का शाब्दिक और सांस्कृतिक अर्थ यही है ...अलग अलग भू खण्डों में लोगों ने इसे अलग अलग संबोधन तो दे दिए पर जीवन के प्रष्फुटित होने से वृहद् में विलीन होने की प्रक्रिया और उसकी समझ सामान ही है हाँ उसको संबोधित करने के शब्द साम्प्रदायिक हैं हिन्दू ,मुसलमान, ईसाई सभी के धार्मिक नेता इसी षड्यंत्र में शामिल हैं और इश्वर की अवधारणा षड्यंत्र की पहली शिकार है ."

रविवार, 27 जनवरी 2013

कुछ तुम कहो कुछ हम कहें



चुप्पी तोड़ो 
कुछ कहो 
बातों का सिलसिला जोड़ो 
पूछो कोई सवाल 
अरसे से जंग पड़ी है जुबान पर 
मैं बोलना चाहती हूँ .................. चलो मन का बोझ हल्का कर लें 

                          रश्मि प्रभा 


ख्वाहिशो की कुछ ना कहो...


तेरे होने पर सूरज गुलाम था मेरा
रास्ते मेरा कहा मानते थे

चाँद बिछा रहता था राहों में
और मैं दुबक जाती थी बहारों के आँचल में
कभी धूप में भीग जाती थी
कभी बूँदें सुखा भी देती थीं,

बसंत मोहताज नहीं था कैलेण्डर का
जेठ की तपती दोपहरों में भी
धूल के बगूले उड़ाते हुए 
घनघोर तपिश के बीच
वो आ धमकता था 
कभी सर्दियों में आग तापने बैठ जाता था
मेरे एकदम करीब सटकर

पेड़ों पर कभी भी खिल उठते थे पलाश
और खेतों में कभी भी लहरा उठती थी सरसों 

तुम थे तो ठहर ही जाते थे पल 
और भागता फिरता था मन
मुस्कुरा उठता था धरती का ज़र्रा-ज़र्रा
और खिल उठती थीं कलियाँ 
बिना बोये गए बीजों में ही कहीं

मौसम किसी पाजेब से बंध जाते थे पैरों में 
और पैर थिरकते फिरते थे जहाँ-तहां 
कैसी दीवानगी थी फिर भी 
लोग मुझे दीवाना नहीं कहते थे
बस मुस्कुरा दिया करते थे

और अब तुम नहीं हो तो 
कुछ भी नहीं होता, सच
बच्चे मुंह लटकाए जाते हैं स्कूल
लौट आते हैं वैसे ही

शाम को गायें लौटती हैं ज़रूर वापस
लेकिन नहीं बजती कहीं बांसुरी 
शाम उदासी लिए आती है
और समन्दर की सत्ताईसवीं लहर में 
छुप जाती है कहीं 

मृत्यु नहीं आती आह्वान करने पर भी 
और जीवन दूर कहीं जा खड़ा हुआ है
मंदिरों से गायब हो गए हैं भगवान 
खाली पड़े हैं चर्च 
सजदे में झुके सर
अचानक इतने भारी हो गए कि उठते ही नहीं

न जाने कौन सी नदी आँखों में उतर आई है
जिसे कोई समन्दर नसीब होता ही नहीं
तुम्हारे जिस्म की खुशबू नहीं है कहीं 
फिर हवा क्या उडाये फिरती है भला
क्या मालूम

लौट आओगे एक रोज तुम 
जैसे लौटे थे बुध्ध 
जैसे लौट आये थे लछमन 
जैसे रख दिए थे सम्राट अशोक ने 
हथियार 
वैसे ही तुम भी रख दोगे अपने विरह को दूर कहीं 

लेकिन उन पलों का क्या होगा
जो निगल रहे हैं हर सांस को 

कैसे बदलेगा यशोधरा और उर्मिला का अतीत
कैसे नर्मदा अपने होने पर अभिमान करेगी
तुम्हारा आना कैसे दे पायेगा उन पलों का हिसाब 
जिन्हें ना जीवन में जगह मिली 
न मृत्यु में

सूरज अब भी कहा मानने को बेताब है 
लेकिन क्या करूं कि कुछ कहने का 
जी नहीं करता
मौसम अब भी तकते हैं टुकुर-टुकुर 
लेकिन उनकी खिलखिलाहटों से 
अब नहीं सजता जीवन

एक झलक देख लूं तो जी जाऊं 
पलक में झांप लूं सारे ख्वाब 
रोक लूं जीवन का पहिया और लौटा लाऊँ 
वो सोने से दिन और चांदी सी रातें 

हाँ, मैं कर सकती हूँ ये भी 
लेकिन विसाल- ए- आरज़ू तुम्हें भी तो हो
तुम्हारे सीने में भी तो हो एक बेचैन दिल
जीवन किसी सजायाफ्ता मुजरिम सा लगे 
और बेकल हों तुम्हारी भी बाहें 
इक उदास जंगल को अपनी आगोश में लेने को

मेरी ख्वाहिशो की अब कुछ ना कहो
कि अब ख्वाब उतरते ही नहीं नींद के गाँव 
पाश की कविता का पन्ना खुला रहता है हरदम 
फिर भी नहीं बचा पाती हूँ सपनों का मर जाना
क्या तुम्हारी जेब में कोई उम्मीद बाकी है
क्या तुम्हें यकीन है कि 
जिन्दगी से बढ़कर कुछ भी नहीं
और ये भी कि जिन्दगी बस तुम्हारे होने से है

क्या सचमुच तुम्हें इस धरती की कोई फ़िक्र नहीं
नहीं फ़िक्र मौसमों की आवारगी की
नहीं समझते कि क्यों हो रही हैं 
बेमौसम बरसातें 
और क्यों पूर्णमशियाँ होने लगी है 
अमावास से भी काली

कि ढाई अछर कितने खाली-खाली से हो गए हैं
लाल गुलाबों में खुशबू नहीं बची
नदियों में कोई आकुलता नहीं 
पहाड़ ऊंघते से रहते हैं 
समंदर चुप की चादर में सिमटा भर है

कोई अब रास्तों को नहीं रौंदता 
कोई नहीं बैठता नदियों के किनारे
कहीं से नहीं उठता धुंआ और
नहीं आती रोटी के पकने की खुशबू

तुम कौन हो आखिर कि जिसके जाने से 
इस कायनात ने सांस लेना बंद कर दिया
क्या तुम खुदा हो या प्रेमी कोई...

प्रतिभा कटियार 


स्वप्न एक मिथ्या .....

स्वप्न बन कर
स्वप्न में
आना ,
और  ,
स्वप्न सा 
टूट कर 
बिखर  जाना;
और 
याद आना 
जागती आँखों में 
डूबता -उबरता 
खुमार .

हाथों में 
मेहँदी क़ी लाली का
चढ़ना ,
और ,
हल्दी सा पीला हो 
उतर जाना ;
और 
याद आना 
हाथों को पीला करने क़ी 
चाह. 

हरी -लाल चूड़ियों क़ी 
खनखनाती
 आवाज़ ,
और ,
उनका टकराना ,चटकना ,
टूट कर बिखर जाना ,
और 
याद आना 
चूड़ियों को पहननें  क़ी 
ललक .

बेला -गुलाब के फूलों को 
वेणी में गूंथ 
पहनना ,
और ,
फूलों का मुरझाकर 
गिर जाना ;
और
याद आना 
फूलों में महकता 
अनुराग .

सब कुछ देखना 
समझना ,
और,
जानते हुए भी 
अनजान बन जाना ;
और 
याद आना 
स्वप्न एक 
मिथ्या .

अलका 


गली के उस मोड़ पर

एक नीम का पेड ,गली के उस मोड़ पर
चंद पान की दूकाने और एक चाय का ढाबा
गली के कुछ बदमुज्जना लड़के और हॉस्टल की तारिकाओ का आना जाना
चीजे बदल रही है तेजी से पर रफ्तार आज भी यहाँ धीमी है
लोग पहचानते है सबके चेहरे , कुछ के नाम भी ।
एक छोटा मंदिर भी है उसी नुक्कड़ पर ,
जिसके बरामदे मे कुछ उम्रदराज लोगो का जमघट लगता है 
गुजरे ज़माने के बातें ,यादें और बतकही साथ चाय के कुछ गर्म प्याले ,
हर साल जाडे के दिनों मे एक कम हो जाता है उनमे से ,
सबके चेहरे मायूएस होते है आँखों मे दुख और डर के भावः उभरते है
की अब किसकी बारी है , हर कोंई एक दुसरे को हसरत से ताकता है ,
कुछ दिनों तक जमघट नहीं लगता , मंदिर का बरामदा सूना हो जाता 
पर फिर एक दिन फिर वही हंसी वही बतकही ,
सच है यही है जिन्दगी हाँ यही है जिन्दगी

प्रवीण द्विवेदी 


मैं अहंकार

अहंकार बोल उठा?
1*
पिताजी ने एक दिन कहा
तुम मेरी तरह मत बनना
अन्यथा मेरी भांति मरने के बाद
लोग तुम्हें भी मूर्ख कहेंगे
2*
भाई ने राह चलते कहा
तुम इतने अच्छे क्यों हो?
मेरा काम तुमने कर दिया
मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता
3*
माँ ने थकी सी आवाज में कहा
तुमने अपने पिता के दायित्वों का
कर दिया निर्वहन
मैं चलती हूँ अनंत यात्रा में
4*
यह तुम्हारा कर्तव्य था?
5*
मित्र ने सांझ की बेला में कहा टहलते
तुम भी निकले खानदानी जड़ भरत
दुनियादारी ही भूल गये
तुम्हारी चिता को आग कौन लगायेगा?
6*
एक लड़की बहुत प्यार कर बैठी
आप इतने भले क्यों हो?
आपने मेरा कितना ख्याल रखा
लेकिन मैं साथ नहीं दे सकती
7*
एक दिन लोगो ने सुना
रमाकांत चल बसा
अरे मर गया?
चलो अच्छा हुआ
मर गया, मर गया
8*
कुछ मन से कुछ अनमने
हो गये इकट्ठे झोकने आग में

एक कानाफूसी हुई

जीया भी तो किसके लिये?
और मर भी गया तो किसके लिये?

रमाकांत सिंह 

शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतंत्र दिवस २६/०१/२०१३ विशेष ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों ,
प्रणाम !

आज २६ जनवरी है यानी गणतंत्र दिवस : आज ही के दिन १९५० में भारत का संविधान लागू किया गया था ! साल दर साल हम लोग मिल कर यह राष्ट्रीय पर्व मानते आए है पर इस बार कुछ लोगो से सुना कि इसका बहिष्कार किया जाये ... पर क्यों ... किस कारण से ... ऐसा क्या हो गया इस बार कि उस की सज़ा गणतंत्र दिवस को दी जाये ... कुछ लोग तर्क देंगे कि वो इस सरकार से नाराज़ है ... देश मे बिगड़ती कानून व्यवस्था के प्रति उनमे रोष है ... सीमा पर हुये घटनाकर्म से वो दुखी है ... सब तर्क जायज है आप के पर एक हद तक ! 

सच बताइएगा दिल्ली रेप कांड के बाद आप मे से कितनों ने नया साल नहीं मनाया ... किसी को मुबारकबाद नहीं दी न किसी से ली ... आप के खुद के घर मे किसी का जन्मदिन आया हो आपने न मनाया हो ! होता क्या है कि हम लोग यह सब तो मना लेते है पर देश से जुड़े हुये किस मामले पर अपनी पकड़ अक्सर ढीली हो जाती है ... सारा गुस्सा राष्ट्रीय पर्व न मना कर या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान कर ठंडा कर लिया जाता है ! क्यों नहीं हम लोग जो कुछ गलत है उसको बदलने का प्रयास करें ... यह तो हम शायद ही कभी करते है ... केवल आलोचना से कुछ हासिल नहीं होता ! विरोध का अधिकार भी उसका ही होता है जो मुद्दे के पक्ष मे हो या विपक्ष मे हो ... जो बाहर बैठे बहस का मज़ा ले रहे है ... वो किस बात पर विरोध करते है ???

आप सरकार से रुष्ट हो सकते है पूरा अधिकार है आपको ... पर राष्ट्रीय पर्व से रुष्ट होना और उसका असम्मान करना ... केवल मूर्खता है ! विरोध सरकार का कीजिये ... कौन रोकता है ... सीधा राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान पर उतर आना कहाँ की समझदारी है ... ऊपर से तुर्रा यह कि इन सब के बाद भी खुद को देश भक्त कहलवाना है ! 

माफ कीजिएगा ... पर यह बात कुछ हज़म नहीं हुई !! 


ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को गणतंत्र की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

सादर आपका 

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गण गौण, तंत्र हावी!




दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र को बने 63 साल हो गए। इन तिरसठ सालों में काफी कुछ बदला है। एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि 'गण' गौण होता जा रहा है और 'तंत्र' हावी हो गया है। गणतंत्र के असली मायने गुम हो गए हैं और 'गणतंत्र' को 'गण' का 'तंत्र' बनाने वाला 'तंत्र' इतना हावी हो गया है कि 'गण' को इसमें घुटन होने लगी है। आजादी के दीवानों ने जिन उम्मीदों के साथ लड़ाई शुरू की थी और उसे अंजाम तक पहुंचाया था, अब के दौर में सब कुछ भुला दिया गया है। सत्ता का स्वाद बाद के नेताओं को ऐसा भाया कि बाकी सब कुछ गौण होता गया और अब आजादी के 65 साल बाद और गणतंत्र के 63 साल बाद यदि मुड़कर देखा जाए तो काफी कुछ बदल... more »

गणतंत्र दिवस

सहसा याद आ गए बचपन के वे दिन - जब मनाते गणतंत्र और स्वंत्रता दिवस सीने में जोश और आँखों में नमी भरे जब झंडा स्कूल का फहराते थे - जन गण मन - हर शब्द दिलों की थाह से उभरते आते थे - कितना अभिमान देश और झन्डे पर अपने था गौरव से सर अपने ऊँचे उठ जाते थे आँख टिकाये टीवी पर - रहता इंतज़ार -ध्वजा रोहण का फहराता तिरंगा जब - वे क्षण वहीँ रुक जाते थे ..... आज फिर आया है गणतंत्र दिवस लेकिन आज वह जोश वह जज़्बा नहीं न है चाह की देखूं परेड जनपथ की - न इच्छा फहराऊं झंडा अभी - वह ध्वज जिसमें लिपटे शहीद आये थे सर जिनके किये थे ... धड़ से जुदा ... याद आया है फिर उन शहीदों का जोश - मरने मिटने वतन पे वे... more »

भारतवर्ष

रश्मि प्रभा... at मेरी नज़र से
वो किस राह का भटका पथिक है ? मेगस्थिनिस बन बैठा है चन्द्रगुप्त के दरबार में लिखता चुटकुले दैनिक अखबार में | सिन्कदर नहीं रहा नहीं रहा विश्वविजयी बनने का ख़्वाब चाणक्य का पैर घांस में फंसता है हंसता है महमूद गज़नी घांस उखाड़कर घर उजाड़कर घोड़ों को पछाड़कर समुद्रगुप्त अश्वमेध में हिनहिनाता है विक्रमादित्य फ़ा हाइन संग बेताल पकड़ने जाता है | वैदिक मंत्रो से गूँज उठा है आकाश नींद नहीं आती है शूद्र को नहीं जानता वो अग्नि को इंद्र को उसे बारिश चाहिए पेट की आग बुझाने को | सच है- कुछ भी तो नहीं बदला पांच हज़ार वर्षों में ! वर्षा नहीं हुई इस साल बिम्बिसार अस्सी हज़ार ग्रामिकों संग सभा में बैठा ... more

'सिने पहेली' में आज गणतंत्र दिवस विशेष

26 जनवरी, 2013 सिने-पहेली - 56 में आज सुलझाइये देशभक्ति गीतों की पहेलियाँ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, जनवरी महीने का आख़िरी सप्ताह हम सभी भारतीयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जनमदिवस, 26 जनवरी को प्रजातंत्र दिवस, और 30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का स्मृति दिवस

क्या मै स्वतंत्र हूँ ?

poonam at anubuthi
दायरे - दायरे और दायरों मे दायरे , छोटे - बड़े , लंबे - चौड़े, गोल- चोकौर, कहीं दिखते कहीं छिपते , कहीं वास्तविक कहीं काल्पनिक , कभी उभरते कभी झीने - झीने , देखो तो हर कोई सिमटा है , अपने - अपने दायरों के दरमियान , कौन है स्वतंत्र यहाँ ? धार्मिक - सामाजिक - पारिवारिक , हर स्तर पर बंधा है हर कोई , स्वतन्त्रता एक जज्बा है , जो हर दिल मे सुलगता है , यह वो अनबुझी प्यास है , जिससे हर कोई झुलसता है , क्या मै स्वतंत्र हूँ ? यह तो यक्ष प्रश्न है ?????

हमारे राष्ट्रीय चिन्ह

*राष्ट्रीय ध्वज - तिरंगा * *राष्ट्रीय पक्षी - मोर * * **राष्ट्रीय पुष्प - कमल * *राष्ट्रीय पेड़ - बरगद * * **राष्ट्रीय फल - आम * *राष्ट्रीय गान - राष्ट्र गान* * ** **राष्ट्रीय नदी *- गंगा नदी *राष्ट्रीय प्रतीक - अशोक चिन्ह * * **राष्ट्रीय **आदर्श ** वाक्य* - सत्यमेव जयते ... more »

हैपी रिपब्लिक डे

माधव( Madhav) at माधव

नरक का राजपथ

गिरिजेश राव, Girijesh Rao at एक आलसी का चिठ्ठा
कुछ है जो नहीं बदलता, नया क्या लिखना जब इतने वर्षों के बाद भी लिखना उन्हीं शब्दों को दुहराये? कुछ है जो ग़लत है, बहुत ग़लत है, चिंतनीय है, अमर है, शाश्वत है। हम अभिशप्त हैं उसे पीढ़ी दर पीढ़ी रोने को अमर अश्वत्थामा बन सनातन घाव ढोने को किंतु हमें नहीं पता हमारा पाप क्या नहीं पता वह अभिशाप क्या? नहीं पता किन ईश्वरों ने गढ़े नर्क? मस्तिष्कों में भरे मवाद जैसे तर्क। .............. खेतों के सारे चकरोड टोली की पगडण्डियाँ कमरे की धूप डण्डी रिक्शे और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा ... ये सब राजपथ से जुड़ते हैं। राजपथ जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं। ये रास्ते ... more »

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

सूर्यकान्त गुप्ता at उमड़त घुमड़त विचार
*गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं* ** बगैर क़ानून कायदे के क्या जीना है सहज मगर अमल में लाता कौन? संविधान - संरचना पूरी होने की तारीख 26 जनवरी घोषित राष्ट्रीय त्यौहार "गणतंत्र दिवस" मनता, मनाता पूरा देश निभाता औपचारिकता महज! (2) संविधान का विधान होत राष्ट्र-हित हेत जान भाव जनता में इस बात का जगाइये वहशी दरिंदों की शिकार हो न "दामिनी" मुक़र्रर सजा-ए -मौत शिकारी को कराइये नक्सली की भेंट अब चढ़ें न निरपराध मन्त्र यंत्र तंत्र का ऐसा जाल जो बिछाइये खाके कसम दूर करने की देश- दुर्दशा दिवस गणतंत्र का परब सब मनाइये *गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित * *जय हि... more »

राष्ट्रगीत के सम्मान में

गिरिजा कुलश्रेष्ठ at Yeh Mera Jahaan
'गॅाड सेव द क्वीन ' के विकल्प-स्वरूप सन् 1876 में श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने 'वन्दे-मातरम्' की रचना की थी । तब यह गीत हर देशभक्त का क्रान्ति गीत बन गया था । 24 जनवरी 1950 को 'जन-गण-मन' को राष्ट्रगान तथा इसे राष्ट्रगीत घोषित किया गया लेकिन नेताजी सुभाष चन्द्र ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा बहुत पहले ही दे दिया था । विश्व के दस लोकप्रिय गीतों में वन्देमातरम् का दूसरा स्थान है । लेकिन हमारे मन प्राण में बसा यह गीत सर्वोच्च और सच्चे अर्थ में मातृ-भूमि की वन्दना का गीत है । हमारे स्वातन्त्र्य-आन्दोलन का गान ,वीरों के उत्सर्ग का मान ,और हर भारतवासी का अभिमान है । कई वर्ष पहले मैंने भी अ... more »

बंद आंखो के सपने

Shekhar Kumawat at काव्य वाणी
बंद आंखो के सपने कहा साकार होते | बातो से रास्ते कहा आसान होते || वतन की मांग है जागो-उढो-चलो | क्योकी तबदिली बुलन्द होसलो से होते || © Shekhar Kumawat

क्या यही है गणतंत्र भारत का ?

ZEAL at ZEAL
आजादी मिले 65 वर्ष बीत गए और संविधान बने 63 वर्ष। लेकिन क्या भारतवर्ष में तरक्की हुयी है? हम जहाँ थे वहीँ हैं या फिर और पीछे चले गए हैं ? इतने वर्षों में क्या तरक्की की है हमने ? अशिक्षित बच्चों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही है , ये नहीं जानते की 'गणतंत्र दिवस' और स्वतंत्रता दिवस क्या है। उनके लिए तो इस दिन लड्डू मिल जाते हैं बस यही है इसकी अहमियत। आधी आबादी जो भारत की सड़कों पर पैदा होती है और फुटपाथ किनारे दम तोड़ देती है क्या ये गणतंत्र दिवस उनके लिए भी है ? ये झंडा रोहण बड़े-बड़े आफिस , दफ्तरों और संस्थानों तक सीमित है। क्या लाभ इस दिवस का ,जब तक हर नागरिक खुशहाल न हो , more »

चाँद मेरा साथी है.. और अधूरी बात

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` at लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`
चाँदनी / - लावण्या *शाह*चाँद मेरा साथी है.. और अधूरी बात सुन रहा है, चुपके चुपके, मेरी सारी बात! चाँद मेरा साथी है.. चाँद चमकता क्यूँ रहता है ? क्यूँ घटता बढता रहता है ? क्योँ उफान आता सागर मेँ ? क्यूँ जल पीछे हटता है ? चाँद मेरा साथी है.. और अधूरी बात सुन रहा है, चुपके चुपके, मेरी सारी बात! क्योँ गोरी को दिया मान? क्यूँ सुँदरता हरती प्राण? क्योँ मन डरता है, अनजान? क्योँ परवशता या अभिमान? चाँद मेरा साथी है.. और अधूरी बात सुन रहा है, चुपके चुपके, मेरी सारी बात! क्यूँ मन मेरा है नादान ? क्यूँ झूठोँ का बढता मान? क्योँ फिरते जगमेँ बन ठन? क्योँ हाथ पसारे देते प्राण? चाँद मेरा साथी है... और ... more »

तब लहराएँ तिरंगा

ऋता शेखर मधु at मधुर गुंजन
*तिरंगा अरु देश वही, वही हिन्द की शान* *हम भारतवासी सदा, करते गुंजित गान* *करते गुंजित गान, आँख में भरता पानी* *याद आते शहीद, याद आती कुर्बानी* *देख देश का हाल, सिमटती जाती गंगा* *करके नव निर्माण, तब लहराएँ तिरंगा* * * *गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ !!*

एक गौरैया, फ़ुदकती थी यहां, अब कहां है

ताऊ रामपुरिया at ताऊ डाट इन
* * * * *1* *एक गौरैया* *फ़ुदकती थी यहां* *कहां है **अब * * * *2* *सीता व राम* *परिणय के बाद* *झूजते रहे* *3* *शिव शंकर* *महा औघड दानी* *स्वयं बेघर* *4* *राधा व कृष्ण* *बिना किसी बंधन* *एक हो गये* * * * * *5* *कदंब भोज* *गोपियों संग रास* *महाभारत*

प्रतीक्षा ...

*मिलोगे तुम मुझे अब ?* *जाने कितने अरसे बाद....* *लगता है सदियाँ बीत गयीं,* *बात कल की नही है,* *मानों किसी * *पिछले जन्म का किस्सा था.* *जाने कैसे पहचानूंगी तुम्हें* *तुम भी कैसे जानोगे* *कि ये मैं ही हूँ ??* *जिन्हें तुम झील सी * *शरबती आँखें कहते थे,* *अब पथरा सी गयीं है,* *गुलाब की पंखुरी सामान अधर* * * *सूख के पपड़ा गए हैं * *इनमें बस * *भूले भटके ही * *आती है कोई* *पोपली सी,**खोखली सी हंसी !!* *रेशमी जुल्फों के साये खोजने निकलोगे,* *तो चंद चांदी के तारों में* *उलझ कर ज़ख़्मी हो जाओगे...* *स्निग्ध गालों की लालिमा* *महीन झुर्रियों में लुप्त हो गयी है* *मगर ये सब तो होना ही  more »
वर्मा कमेटी , बलात्कार , फ़ांसी और आम आदमी
वर्मा कमेटी , बलात्कार , फ़ांसी  और आम आदमी
अजय कुमार झा at झा जी कहिन
    बीते हुए साल ने जाते जाते इस देश को जैसे आइना दिखा दिया । दिल्ली बलात्कार कांड ने इस देश को , इस समाज को , सरकार , प्रशासन , पुलिस , कानून और देश के जनप्रतिनिधियों तक को उनकी असलियत से रूबरू करा दिया । एक युवती जिसे , शहर के बीचों(…)

कार्टून :- हैप्पी गनतंतर दि‍वस

(काजल कुमार Kajal Kumar) at Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून

http://kajalkumarcartoons.blogspot.com/

गणतंत्र दिवस - अब मेरी जिम्मेदारी खत्म

noreply@blogger.com (जी.के. अवधिया) at धान के देश में!
तोरन-पताका सजवा दिया झंडा फहरवा दिया राष्ट्रगान गवा दिया सबके माथे पे तिलक लगवा दिया सेव-बूंदी बँटवा दिया देशभक्ति गाने बजवा दिया इस तरह से गणतंत्र दिवस मना लिया अब मेरी जिम्मेदारी खत्म 

जन-गण चलो मन से एक गान गायें.

ये संविधान गरीबों और मध्यम वर्ग के लिए सजा है गौर से देखो अमीरों की बस्ती मे ये एक मजा है। एक औरत की आबरू कैसे बचे?,इसका कोई अनुच्छेद नहीं!!! दोषियों को बचा लेने पर न्यायधीश को कोई खेद नहीं.... प्रस्तावना तो बस नाम की कुंजी है.... जिधर हक की लड़ाई मे उम्मीदें हमारी भूँजी हैं ये गणतन्त्र दिवस मनाने की सज़ा बहुत बड़ी है.... लालची नेताओं की जीभ श्वान से बड़ी है..... जन-गण चलो मन से एक गान गायें...... ये संविधान सही नहीं,चलो एक नया संविधान बनायें। सोनिया
 ============= 
अब आज्ञा दीजिये ... 

  
 जय हिन्द !!!

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