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शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

बस चलना है … तो चलते ही जाते हैं




एक रुलाई अंदर खलबली मचाये रहती है 
वजह,बेवजह उँगलियों पर दिन जोड़ती रहती हूँ 
चिड़िया बनकर अब मेरी आकृति 
अपनी चोंच से दरवाज़े को खुरचती है 
"माई रे खोल न दरवाज़ा"

दिन,महीने,साल गुजर जाते हैं, ये काम,वो काम, कर्तव्यों के मध्य आदमी चलता जाता है, किसी के न होने का दुःख, झंझावातों का दुःख,  … एक चुप क़दमों के साथ चलते हैं - शरीर नश्वर है, आत्मा अमर का मलहम कहाँ काम करता है, बस चलना है  … तो चलते ही जाते हैं 

चलते हुए कुछ विशेष लिंक्स - यादों के 


1 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर सूत्रो के साथ पेश किया गया आज का सुंदर बुलेटिन ।

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