Subscribe:

Ads 468x60px

कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 30 जून 2016

बेबाकी और फकीरी की पहचान बाबा नागार्जुन - ब्लॉग बुलेटिन

परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा बांग्ला में साहित्य सर्जना करने वाले अप्रतिम लेखक और कवि नागार्जुन का जन्म आज ही के दिन 30 जून 1911 को मधुबनी ज़िले के सतलखा गाँव में हुआ था. उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं. इनके पिता श्री गोकुल मिश्र तरउनी गाँव के एक किसान थे और खेती के अलावा पुरोहिती भी किया करते थे. नागार्जुन को साहित्यजगत ‘बाबा’ के नाम से पुकारता है. उनकी आरंभिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से संस्कृत में हुई तथा आगे की शिक्षा स्वाध्याय पद्धति से ही हुई. पालि भाषा के ज्ञान हेतु वे श्रीलंका चले गए जहाँ वे स्वयं पालि पढ़ते थे और मठ के भिक्खुओं को संस्कृत पढ़ाते थे. यहीं उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. बाबा नागार्जुन की भाषा लोक भाषा के निकट है. तद्भव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण इसमें एक विचित्र प्रकार की मिठास देखने को मिलती है.


साहित्यजगत उनके छः से अधिक उपन्यासों, एक दर्जन कविता-संग्रहों, दो खण्ड काव्यों, दो मैथिली कविता-संग्रहों, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों से दैदीप्यमान है. अपने खेत में, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, ओम मंत्र, भूल जाओ पुराने सपने, रत्नगर्भ आदि उनके प्रमुख काव्य-संग्रह तथा रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे, कुंभीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे आदि प्रमुख उपन्यास हैं. इसके अतिरिक्त बाबा नागार्जुन ने बाल साहित्य को कथा मंजरी भाग-1, कथा मंजरी भाग-2, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ भी प्रदान कीं. उनकी मैथिली रचनाओं में चित्रा, पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह), पारो, नवतुरिया (उपन्यास) प्रमुख हैं.
बाबा नागार्जुन को उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से तथा 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित किया गया. 5 नवम्बर 1998 को अपनी फ़क़ीरी और बेबाक़ी से अनोखी पहचान बनाने वाला, कबीर की पीढ़ी का यह महान कवि साहित्यजगत को सदा-सदा के लिए अलविदा कह गया. नागार्जुन को उनके जन्मदिन पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए आज की बुलेटिन आपके समक्ष प्रस्तुत है.

++++++++++












बुधवार, 29 जून 2016

सांख्यिकी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।।

सांख्यिकी दिवस ( Statistics Day) भारत में प्रत्येक वर्ष '29 जून को मनाया जाता है। यह महत्त्वपूर्ण प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद पी. सी. महालनोबिस के आर्थिक योजना और सांख्‍यि‍की विकास के क्षेत्र में उल्‍लेखनीय योगदान के सम्‍मान में मनाया जाता है।
पी. सी. महालनोबिस
स्‍वतंत्रता के बाद आर्थिक योजना तथा सांख्‍यिकीय विकास के क्षेत्र में प्रोफ़ेसर पी. सी. महालनोबिस द्वारा किए गए उल्‍लेखनीय योगदान को ध्‍यान में रखते हुए 'भारत सरकार' ने प्रतिवर्ष उनके जन्‍म दिवस '29 जून' को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर विशेष दिवस की श्रेणी के अंतर्गत रखकर "सांख्‍यिकी दिवस" के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। इस आशय की अधिसूचना दिनांक 5 जून, 2007 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित की गई थी। यह दिवस राष्‍ट्रीय विकास में सरकारी सांख्‍यिकी के महत्त्व को उजागर करने के लिए संगोष्‍ठियों, चर्चाओं तथा प्रतियोगिताओं को आयोजित करके मनाया जाता है।

[ जानकारी स्त्रोत - http://bharatdiscovery.org/india/सांख्यिकी_दिवस ]


अब चलते हैं आज कि बुलेटिन की ओर....


बेटियों का अपराध

जगदेव परमार

उदन्‍तपुरी में है हि‍रण्‍य पर्वत

साइकिल के साथ तैराकी का लुत्फ़

अहसानमंद

सापेक्षता की समझ

बनो दीप से !

सच क्या है

उठो

मैंने घर नहीं, एक मकान बनाया है....


आज की बुलेटिन में बस इतना ही, कल फिर मिलेंगे। तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर...अभिनन्दन।।


मंगलवार, 28 जून 2016

सही उपयोग - ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

एक बार एक भारतीय से एक अंग्रेज बोला, "अाप लोग चीजों का सही उपयोग नहीं करते।"

भारतीय: चीजों का सही उपयोग अगर हम नहीं करते तो कोई भी नहीं करता।
अंग्रेज: यह अाप कैसे कह सकते हो?

भारतीय: मैं समझाता हूँ। मेरे इस पजामे को देखो, मैं इसे करीब एक साल से पहन रहा हूंं। अब इसके बाद श्रीमति जी इसको काटकर मेरे बेटे राजू के साइज़ का बना देगी।

फिर राजू इसे एक साल पहनेगा। उसके बाद श्रीमति जी इसको काट-छांट कर तकियों के कवर बना देगी।

फिर एक साल बाद उन कवर का झाड़ू पोछे में इस्तेमाल किया जायेगा।

अंग्रेज बोला, "फिर फेंक देते होंगे?"

भारतीय ने फिर कहा, "नहीं-नहीं इसके बाद 6 महीने तक मैं इस से अपने जूते साफ़ करूंगा और अगले 6 महीने तक बाइक का साइलेंसर चमकाऊँगा। बाद में उसे हाथ से बनाई जाने वाली गेंद में काम में ले लेंगे और अंत में कोयले की सिगडी (चूल्हा) सुलगाने के काम में लेंगे और फिर उस सिगड़ी (चूल्हे) की राख बर्तन मांजने के काम में लेंगे।"

इतना सुनने के बाद अंग्रेज बेहोश होकर गिर गया और उसे होश आने पर एहसास हुआ कि आखिर अंग्रेज भारत छोड़कर जाने पर क्यों मजबूर हुए।
 
सादर आपका

सोमवार, 27 जून 2016

अकेलेपन को एकांत दो




अकेलेपन का मित्र कोई व्यक्तिविशेष हो - ज़रूरी नहीं 
प्रकृति,ख़ामोशी,घड़ी की टिक टिक … भी हो सकते हैं
रोने से पहले दिल की सुनो 
भीड़ में वह कितना चुप सा था 
पंछी कितने उदास थे - सोचो
सुनो - ....
और जानो - अकेलेपन को एकांत दो
एकांत में ही आध्यात्म की रौशनी प्रखर होती है 


रविवार, 26 जून 2016

थोपा गया आपातकाल और हम... ब्लॉग बुलेटिन

च्चीस जून... हिंदुस्तान के लोक-तंत्र का काला अध्याय... एक ऐसा दिन जिसने लोक तंत्र को हिला के रख दिया...  आखिर क्यों हुआ ऐसा? कैसे पहली बार कांग्रेसी सत्ता हिली और देश में परिवर्तन की लहर चल निकली.... आखिर ऐसा क्या हुआ कि इंदिरा गाँधी की जिस सरकार ने आपातकाल थोपा... उसके परिणाम स्वरूप देश ने १९७७ में विपक्ष का रास्ता दिखाया उसी इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद हुए आम-चुनाव १९८४ में कांग्रेस को ऐतेहासिक विजय दिलाई... आखिर इस शह और मात के खेल में देश की जनता कितनी बदली... हमारा लोक तंत्र कितना परिपक्व हुआ... हम कितने सुधरे और कितने बिगड़े.... 

आईए थोडा इतिहास के आईनें में चलते हैं..... सन सैतालीस को याद करते हैं.... जब हम आज़ाद हुए थे.... या यूं कहें कि अग्रेजों से सत्ता हस्तांरण की प्रक्रिया पूरी हुई थी... जुलाई १९४७ को ब्रिटिश संसद भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ पास करती है और उसी के तहत भारत को दो भागों में विभाजित करनें की प्रक्रिया शुरु होती है। भारत और पाकिस्तान दो देश बनते हैं और दोनों को विरासत में एक दूसरे के साथ उलझे रहनें और दुश्मन समझनें की मानसिकता बल लेती है। आखिर ब्रिटिश राज के जानें और भारत के एक लोकतंत्र बननें की प्रक्रिया पूरी होनें के बाद क्या भारत वाकई में स्वतंत्र हो गया ? दर-असल सत्ता हस्तांतरित ज़रूर हुई लेकिन सभी प्रक्रियाएं उसी प्रकार से चली जैसी अंग्रेज चलाते आए थे... अंग्रेज राज गया और कांग्रेस राज शुरु हुआ। निर्बाध सत्ता.... कोई रोक टोक नहीं... कोई प्रतिबन्ध नहीं.... कांग्रेसी राज चलता रहा क्योंकि विपक्ष के नाम पर कोई था ही नहीं.... समाजवाद की हवा धीरे धीरे चलती रही लेकिन कांग्रेस को कभी कोई गतिरोध का अनुभव नहीं हुआ। 

आपातकाल
१९७५ के जून में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय नें इन्दिरा गान्धी के चुनाव को खारिज़ किया और अपनें मद में चूर कांग्रेस किसी भी तरह से सत्ता छोडनें के पक्ष में नहीं थी.... सो देश पर आपातकाल थोप दिया गया... पत्रकारिता प्रतिबन्धित... सभी समाजवादी नेता या तो भूमिगत या फिर जेल में...  इंदिरा इंडिया पर पूरी तरह से हावी और अजीब से हालत में देश...  संघ को प्रतिबंधित संगठन घोषित किया गया और एक लाख लोगों को बिना किसी ट्रायल के जेल में ठूस दिया गया.. फिर अगले साल तस्वीर आई जंजीरों में जकड़े जार्ज फर्नांडिस की....


इस तस्वीर नें उस समय की कांग्रेसी ज़्यादतियों से परेशान जनता के लिए आग में घी का काम किया...  वहीं जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी भाग कर अमेरिका जा पहुंचे... इन घटनाओं नें स्वामी और जार्ज फ़र्नाडिस को सरकार के विरोध में एक हीरो के रूप में खडा कर दिया।  उधर संघ का भूमिगत आन्दोलन जारी था और समाज़वादी और कांग्रेस विरोधी नेताओं की लामबन्दी शुरु हो चुकी थी। 

जनता सरकार 

जब १९७७ में आम चुनाव हुए, जनता नें पूरा ज़वाब दिया और जयप्रकाश के आन्दोलन की आंधी एक लहर का रूप लेकर कांग्रेसी सरकार का सफ़ाया कर चुकी थी.... खुद इन्दिरा हारीं, संजय हारे और कांग्रेस का बुरा हाल हो गया । 

जनता सरकार का पतन
पहली बार सत्ता गैर कांग्रेसी हाथ में आई, यह दौर देश नें कभी नहीं देखा था, परिवर्तन की इस बयार को जनता पार्टी संभाल न सकी और कुछ ऐसी गलतियां कर बैठी जिसका इन्दिरा ने अपनी कुशल राजनीतिक समझ से पूरा फ़ायदा उठाया.... मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।  इन्दिरा गान्धी की गिरफ़्तारी की कोशिश और उसके बाद हुए ट्रायल नें जनता की सरकार के लिए बैक-फ़ायर का काम किया और इन्दिरा गान्धी जनता की सहानुभुति पानें में कुछ हद तक कामयाब हो रही थी। १९७९ में जेपी के निधन के बाद सरकार के घटकों की एकता ही खतरे में आ गई... व्यक्तिगत महत्वकांक्षा सरकार चलानें में मुश्किल कर रही थी... कांग्रेस नें अंग्रेजों से विरासत में मिले डिवाईड एंड रूल की प्रक्रिया का पालन किया और जनता सरकार को गिरा दिया। चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनाना कांग्रेस की एक गहरी चाल थी, जिसे कोई समझ नहीं पाया। आज़ाद भारत के इतिहास में सरकार को गिरानें की यह पहली साजिश थी, जिसे इन्दिरा नें बखूबी अंजाम दिया। 

उसके बाद हुए आम चुनावों में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफ़लता मिली, क्योंकि समाजवादी अपनें परस्पर विरोध और मतभेदों पर नियंत्रण करनें में असफ़ल रहे। कई धडे मिलकर आपस में ही लडनें लगे और जनता के पास कोई अन्य विकल्प न था... सो कांग्रेस सफ़ल रही।  मेरा अपना मानना है कि आज कल के तथाकथित समाजवादी नेता आपातकाल की नाजायज औलादें थे.... जो जेपी के आन्दोलन के रथ पर सवार होकर न जानें कैसे सत्ता के गलियारों तक पहुंच गये.... जो किसी लायक न थे वह आज नेता बने हुए हैं....   

------------------------------------------------------------

शनिवार, 25 जून 2016

खालूबार के परमवीर को समर्पित ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

आज का दिन समर्पित है १९९९ के कारगिल युद्ध के नायक, अमर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे जी को|

 
मनोज कुमार पांडेय (25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश -- 3 जुलाई 1999, कश्मीर), भारतीय सेना के अधिकारी थे जिन्हें सन १९९९ मे मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
 
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के रुधा गाँव में हुआ था। उनके पिता गोपीचन्द्र पांडेय तथा माँ के नाम मोहिनी था। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई और वहीं से उनमें अनुशासन भाव तथा देश प्रेम की भावना संचारित हुई जो उन्हें सम्मान के उत्कर्ष तक ले गई। इन्हें बचपन से ही वीरता तथा सद्चरित्र की कहानियाँ उनकी माँ सुनाया करती थीं और मनोज का हौसला बढ़ाती थीं कि वह हमेशा जीवन के किसी भी मोड पर चुनौतियों से घबराये नही और हमेश सम्मान तथा यश की परवाह करे। इंटरमेडियेट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज प्रतियोगिता में सफल होने के पश्चात पुणे के पास खडकवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया। प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात वे 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बनें।
 
करियर
“जिस समय राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के च्वाइस वाले कालम जहाँ यह लिखना होता हैं कि वह जीवन में क्या बनना चाहते हैं क्या पाना चाहते हैं वहां सब लिख रहे थे कि, किसी को चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ बनना चाहता हैं तो कोई लिख रहा था कि उसे विदेशों में पोस्टिंग चाहिए आदि आदि, उस फार्म में देश के बहादुर बेटे ने लिखा था कि उसे केवल और केवल परमवीर चक्र चाहिए”
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रशिक्षण के पश्चात वे बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में तैनात हुये। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, 'हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।' इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात से परेशान हो गये कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे। जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका आया, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले। यह दोनों चौकियाँ दरअसल बहुत कठिन प्रकार की हिम्मत की माँग करतीं हैं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया।
 
ऑपरेशन विजय और वीरगति

पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर उन्होने अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गए और जीत कर ही माने। हालांकि, इन कोशिशों में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। वे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए।

फिल्म
 
कैप्टन मनोज के जीवन और उनकी वीरता को वर्ष 2003 में बनी एक फिल्म 'एल ओ सी कारगिल' में दर्शाया गया , जिसमें उनके किरदार को अजय देवगन ने अभिनीत किया।

सम्मान
 
कारगिल युद्ध में असाधारण बहादुरी के लिए उन्हें सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र (मरणोपरांत) से अलंकृत किया गया। सारा देश उनकी बहादुरी को प्रणाम करता है।
 
 
आज परमवीर अमर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे की ४१ वीं जयंती के अवसर पर ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से हम सब उनको शत शत नमन करते है |
 
सादर आपका
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

चमड़े की खाल से सिली गई हूँ मैं

भगवान अापकी रक्षा करें - सतीश सक्सेना

लोकतंत्र

पहला रोज़ा

बंद कमरा...

फ्लेमिंगो सी उम्मीदें ......

एक हद तक

पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफर...(२)

इंसान सदा ही उत्सव प्रिय रहा है

बढ़ती मंहगाई से जीवनयापन करना दूभर : सरकारें मंहगाई रोकने में असफल

परछाईं

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

जय हिन्द की सेना !!! 

शुक्रवार, 24 जून 2016

रानी दुर्गावती और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
रानी दुर्गावती ( जन्म: 5 अक्टूबर, 1524 - मृत्यु: 24 जून, 1564) गोंडवाना की शासक थीं, जो भारतीय इतिहास की सर्वाधिक प्रसिद्ध रानियों में गिनी जाती हैं। वीरांगना महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपतशाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाई। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।

रानी दुर्गावती

शौर्य और पराक्रम की देवी


झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रानी दुर्गावती का शौर्य किसी भी प्रकार से कम नहीं रहा है, दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को लम्बे समय तक इसलिए दबाये रखा कि उसने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध संघर्ष किया और उन्हें अनेकों बार पराजित किया। देर से ही सही मगर आज वे तथ्य सम्पूर्ण विश्व के सामने हैं। धन्य है रानी का पराक्रम जिसने अपने मान सम्मान, धर्म की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेकों बार शत्रुओं को पराजित करते हुए बलिदान दे दिया।

दुर्गावती का शासन 


दुर्गावती ने 16 वर्ष तक जिस कुशलता से राज संभाला, उसकी प्रशस्ति इतिहासकारों ने की। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने लिखा है, दुर्गावती के शासनकाल में गोंडवाना इतना सुव्यवस्थित और समृद्ध था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्णमुद्राओं और हाथियों से करती थीं। मंडला में दुर्गावती के हाथीखाने में उन दिनों 1400 हाथी थे। मालवांचल शांत और संपन्न क्षेत्र माना जाता रहा है, पर वहां का सूबेदार स्त्री लोलुप बाजबहादुर, जो कि सिर्फ रूपमती से आंख लड़ाने के कारण प्रसिद्ध हुआ है, दुर्गावती की संपदा पर आंखें गड़ा बैठा। पहले ही युद्ध में दुर्गावती ने उसके छक्के छुड़ा दिए और उसका चाचा फतेहा खां युद्ध में मारा गया, पर इस पर भी बाजबहादुर की छाती ठंडी नहीं हुयी और जब दुबारा उसने रानी दुर्गावती पर आक्रमण किया, तो रानी ने कटंगी-घाटी के युद्ध में उसकी सेना को ऐसा रौंदा कि बाजबहादुर की पूरी सेना का सफाया हो गया। फलत: दुर्गावती सम्राज्ञी के रूप में स्थापित हुईं।

अकबर और दुर्गावती


तथाकथित महान मुग़ल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ़ ख़ाँ के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ़ ख़ाँ पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दोगुनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास 'नरई नाले' के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुग़ल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी। अगले दिन 24 जून, 1564 को मुग़ल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।

अकबर से संघर्ष और बलिदान

आसफ़ ख़ाँ रानी की मृत्यु से बौखला गया, वह उन्हें अकबर के दरबार में पेश करना चाहता था, उसने राजधानी चौरागढ़ (हाल में ज़िला नरसिंहपुर में) पर आक्रमण किया, रानी के पुत्र राजा वीरनारायण ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की, इसके साथ ही चौरागढ़ में पवित्रता को बचाये रखने का महान जौहर हुआ, जिसमें हिन्दुओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं ने भी जौहर के अग्नि कुंड में छलांग लगा दी थी। किंवदंतियों में है कि आसफ़ ख़ाँ ने अकबर को खुश करने के लिये दो महिलाओं को यह कहते हुए भेंट किया कि एक राजा वीरनारायण की पत्नी है तथा दूसरी दुर्गावती की बहिन कलावती है। राजा वीरनारायण की पत्नी ने जौहर का नेतृत्व करते हुए बलिदान किया था और रानी दुर्गावती की कोई बहिन थी ही नहीं, वे एक मात्र संतान थीं। बाद में आसफ़ ख़ाँ से अकबर नराज़ भी रहा, मगर मेवाड़ के युद्ध में वह मुस्लिम एकता नहीं तोड़ना चाहता था।



महान वीरांगना रानी दुर्गावती जी के 452वें बलिदान दिवस पर पूरा भारत उनकों याद करते हुए शत शत नमन करता है। सादर।। 



अब चलते हैं आज कि बुलेटिन की ओर  .....














आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर  ... अभिनन्दन।।

गुरुवार, 23 जून 2016

यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ...

आजकल चर्चा में है यूरोपियन संघ... यूरोप की सबसे बड़ी समस्या बन गया है यह। आइए समझते हैं कि आखिर यूरोपियन संघ क्या है और आखिर ब्रिटेन इससे निकलना क्यों चाहता है। और इस उठापटक से भारत जैसे देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
यूरोपियन संघ: 4,324,782 वर्ग किमी, लगभग पचास करोड़ की आबादी, यूरोप के अठाइस समृद्ध देशों का एक ऐसा संघ जो इन देशों के बीच व्यापार, पर्यटन, नौकरी करने के लिए सुविधाएं देता है। यूरोपियन देशों के बीच बेरोकटोक यातायात और बिना वीज़ा के घूमने और काम करने की सुविधा देता है। इस यूरोपियन संघ की राजधानी ब्रुसेल्स में है और लन्दन और पेरिस दो सबसे बड़े देश हैं। व्यापारिक मुद्दों पर इस संघ का अपना नियम है और यूरोपियन संघ के सभी देश इन्ही नियम से बंधे हुए हैं। यदि कोई देश अपने देश के लिए कोई बदलाव चाहता है तब उसे यूरोपियन यूनियन को प्रस्ताव भेजना होगा और फिर सभी सदस्यों की मंज़ूरी लेनी होगी। 

इसके अठारह सदस्य करेंसी के लिए यूरो का प्रयोग करते हैं। यूरोपियन यूनियन नॉमिनल जीडीपी के अनुसार विश्व की कुल अर्थव्यवस्था का चौबीस प्रतिशत और परचेज पॉवर पैरिटी के अनुसार दुसरे स्थान(अठारह ट्रिलियन डॉलर) पर है। यह संगठन विश्व में वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन, जी-8, जी-20 देशों का हिस्सा रहा है। यह विश्व में देशों के अब तकके सबसे बड़े संगठनों में से एक है। सही मायने के कहें तो यह आर्थिक महाशक्ति है। 

यूरोपियन देशों की अपनी नागरिकता है, अपना लीगल(कानूनी) सिस्टम है और सदस्य देश इस नियम से बंधे हैं, कई बार यह उस देश के क़ानून से विरोधाभास होने के बावजूद उस देश के न्यायालय यूरोपियन यूनियन के न्याय प्रणाली, क़ानून को ही ध्यान में रखकर फैसला दे सकते हैं। इससे किसी एक देश की मोनोपोली बंद हुई और यूरोप में शान्ति का एक नया दौर फैला। इन्ही प्रयासों से 2012 के विश्व शान्ति का नोबेल पुरस्कार यूरोपियन संघ को दिया गया। 

ब्रिटेन क्यों निकलना चाहता है?
ब्रिटेन विश्व की एक महाशक्ति है और वह यूरोपियन यूनियन में होने के बावजूद भी अपनी करेंसी पौंड को ही इस्तेमाल करता है। इस संधि से यूरोप के कई देशों के निवासी इंग्लैण्ड में जॉब के लिए बेरोकटोक आ जाते हैं। यात्रा, पर्यटन सभी का लाभ तो है लेकिन फिर भी ब्रिटेन को अपने देश के क़ानून के अनुसार इन्हें नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं है। यूरोप से ब्रिटेन को जितना लाभ है उससे कहीं ज्यादा यूरोप को ब्रिटेन की जरुरत है। यदि ब्रिटेन इस संघ से निकल जाता है तब वह यूरोपियन संघ से जुड़ा भी रहेगा लेकिन व्यापारिक मामलों में अपना नियंत्रण भी रख सकेगा। फिलहाल ब्रिटेन का एक्सपोर्ट सबसे अधिक यूरोपियन संघ में ही होता है जो हमेशा ब्रिटेन के लिए फायदे का सौदा नहीं होता। 

ब्रिटेन का बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा एक दूसरा अपरोक्ष कारण है।  

यदि ब्रिटेन निकल जाता है?
भारत जैसे देशों को इसका लाभ मिलेगा क्योंकि उस स्थिति में ब्रिटेन यूरोपियन संघ से इतर आयात निर्यात, कच्चे माल, निर्माण सेक्टर में भारत और अमेरिका जैसे देशों से भी व्यापार कर सकेगा। वह यूरोपियन संघ के देशों से भी व्यापार कर सकेगा लेकिन अपनी खुद की शर्तों पर। भारत भी यूरोपियन संघ की शर्तों से इतर ब्रिटेन से सायबर सिक्युरिटी और सैन्य क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को ब्रिटेन के साथ द्विपक्षीय वार्ता से ही निपटा लगा जो अभी यूरोपियन संघ के नियम के अनुसार कठिन है। ब्रिटेन के लिए यूरोपियन संघ से हुआ नुकसान मेक-इन-इण्डिया से सुधर सकता है। 

इन्वेस्टमेंट बैंकिंग सेक्टर सबसे बड़े खतरे में आएगा, ब्रिटेन के निकलने की स्थिति में एचएसबीसी पहले ही अपने ऑफिस को फ़्रांस ले जाने की बात कह चुका है, और इसी प्रकार की बात अन्य देशों ने भी कही है। 

उन सभी कंपनियों के मालिक अपने मूल देश के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को सुदृढ़ रखने का प्रयास करेंगे और वह एमर्जिंग मार्केट से पैसा निकालने का प्रयास करेंगे। यकीन मानिए चौबीस जून को विश्व के शेयर बाज़ार जबरदस्त उठापटक मचाएंगे। अगला हफ्ता बैंकिंग सेक्टर में काम करने वाले लोगों के लिए बहुत व्यस्त रहने वाला है। 

बहरहाल कई ऐसी यूरोपियन कम्पनियाँ हैं जिनका हेड-क्वार्टर ब्रिटेन में है और वह सभी अभी पशोपेश की स्थिति में हैं। ब्रिटेन के नागरिक 23 जून को निर्णय लेंगे और यह अभी तक के सबसे महत्तवपूर्ण जनमत संग्रहों में से एक होगा। और हाँ एक और बात, इस वोटिंग प्रक्रिया में भाग लेने वाले लगभग दस लाख वोटर भारतीय मूल के हैं सो देखते हैं यह एंग्लो-इन्डियन वर्ग क्या करता है और चलिए देखते हैं यूरोप के सबसे बड़े संकट यूरोपियन संघ पर क्या होता है... 
इस आलेख को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं ... यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ...

बुधवार, 22 जून 2016

योग आभा से आलोकित वैश्विक समुदाय : ब्लॉग बुलेटिन

भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ में 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाने की अपील की थी. संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने इतिहास के सबसे कम समय (90 दिन) में प्रस्ताव को पूर्ण बहुमत से पारित करके 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने की अनुमति प्रदान की. 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया. इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड बना 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में अपना नाम दर्ज करा लिया. पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के योग करने (दिल्ली में 35985 लोग) का तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों (192 देश) के लोगों के योग करने का. विरोध और समर्थन के बीच दूसरा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस इस वर्ष भी मनाया गया. इस बार वर्ल्ड के 191 देशों में योग दिवस मनाया जा रहा है. केवल लीबिया और यमन में हालात खराब होने के चलते वहाँ योग दिवस नहीं मनाया जा रहा है. 


देश में योग सम्बन्धी विवाद पर कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि यहाँ वेलेंटाइन डे अथवा अन्य पश्चिमी दिवसों पर भव्य आयोजन बिना किसी विवाद के सहजता से संपन्न हो जाते हैं. लाखों-करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो जाता है. आयोजन-संस्कृति के नाम पर शराब, शबाब, कबाब आदि का खेल हो जाता है. ऐसे आयोजनों में न तो मजहबी भावनाओं का आहत होना दिखाई देता है न ही राजनीति दिखाई देती है. ये सबकुछ योग के नाम पर ही सामने आता है. विरोध करने वालों को इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 180 से अधिक दिवसों का आयोजन वैश्विक स्तर पर किया जाता है, इनमें से कितने दिवसों का विरोध देश में होता है. सोचने वाली बात ये है कि कहीं विरोध का कारण ये तो नहीं कि भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे योग के वैश्विक आयोजन करवाने का श्रेय भाजपानीत केंद्र सरकार अथवा देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को मिल गया?


बहरहाल ऐसे आयोजनों से वैश्विक स्तर पर देश की संस्कृति का अभिन्न अंग योग को पहचान मिली है. समस्त देशवासियों के लिए यह गौरव का विषय है. इसी गौरवान्वित होते क्षण के बीच आज की बुलेटिन आपके समक्ष है, जो विशेष रूप से योग को समर्पित है.

++++++++++



































समस्त चित्र विभिन्न वेबसाइट से साभार लिए गए हैं.

लेखागार