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गुरुवार, 13 जुलाई 2017

संभव हो तो समाज के तीन जहरों से दूर रहें

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

एक आम आदमी सुबह जागने के बाद सबसे पहले टॉयलेट जाता है,
बाहर आ कर साबुन से हाथ धोता है,

दाँत ब्रश करता है,

नहाता है,

कपड़े पहनकर तैयार होता है, अखबार पढता है,

नाश्ता करता है,

घर से काम के लिए निकल जाता है,

बाहर निकल कर रिक्शा करता है, फिर लोकल बस या ट्रेन में या अपनी सवारी से ऑफिस पहुँचता है,

वहाँ पूरा दिन काम करता है, साथियों के साथ चाय पीता है,
 शाम को वापिस घर के लिए निकलता है,

घर के रास्ते में

बच्चों के लिए टॉफी, बीवी के लिए मिठाई वगैरह लेता है,

मोबाइल में रिचार्ज करवाता है, और अनेक छोटे मोटे काम निपटाते हुए घर पहुँचता है,

अब आप बताइये कि उसे दिन भर में कहीं कोई "हिन्दू" या "मुसलमान" मिला ?

क्या उसने दिन भर में किसी "हिन्दू" या "मुसलमान" पर कोई अत्याचार किया ?

उसको जो दिन भर में मिले वो थे.. अख़बार वाले भैया,

दूध वाले भैया,

रिक्शा वाले भैया,

बस कंडक्टर,

ऑफिस के मित्र,

आंगतुक,

पान वाले भैया,

चाय वाले भैया,

टॉफी की दुकान वाले भैया,

मिठाई की दूकान वाले भैया..

जब ये सब लोग भैया और मित्र हैं तो इनमें "हिन्दू" या "मुसलमान" कहाँ है ?

"क्या दिन भर में उसने किसी से पूछा कि भाई, तू "हिन्दू" है या "मुसलमान" ?

अगर तू "हिन्दू" या "मुसलमान" है तो मैं तेरी बस में सफ़र नहीं करूँगा,

तेरे हाथ की चाय नहीं पियूँगा,

तेरी दुकान से टॉफी नहीं खरीदूंगा,

क्या उसने साबुन, दूध, आटा, नमक, कपड़े, जूते, अखबार, टॉफी, मिठाई खरीदते समय किसी से ये सवाल किया था कि ये सब बनाने और उगाने वाले "हिन्दू" हैं या "मुसलमान" ?

"जब हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मिलने वाले लोग "हिन्दू" या "मुसलमान" नहीं होते तो फिर क्या वजह है कि "चुनाव" आते ही हम "हिन्दू" या "मुसलमान" हो जाते हैं ?

समाज के तीन जहर

टीवी की बेमतलब की बहस

राजनेताओ के जहरीले बोल

और  कुछ कम्बख्त लोगो के सोशल मीडिया के भड़काऊ मैसेज

इनसे दूर रहे तो  शायद बहुत हद तक समस्या तो हल हो ही जायेगी.

किसी पढ़े लिखे बंदे ने मुझे पढ़ा लिखा समझ कर यह व्हाट्सअप पर भेजा है मैंने भी कुछ ऐसा ही सोच कर आप लोगों को पढ़वा दिया | आगे आप की मर्ज़ी |

सादर आपका
शिवम् मिश्रा

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दोहा छन्द

आदिकवि

जब मैं माँ बनूँगी,...!!!

177. इस बार सावन बहका हुआ है...

आंटी की दूकान...

कैकेयी / मँथरा : पारस- स्पर्श : लेख मालिका

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (११)

धर्म की दीमकें

बादल, बारिश एवं सखियों संग भंडारधारा की सैर

गद्दारों सम्भल जाओ ....

मेरी ब्लॉग यात्रा

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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

7 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

:) बहुत दिनों के बाद शिवम जी । अच्छी प्रस्तुति। अभी तक समझ नहीं सकें हैं हम कि पढ़ लिख गये हैं कि नहीं ? फिर भी पढ़े लिखे का लिखा पढ़ा पढ़ लिया।

Archana Chaoji ने कहा…

बहुत सही सन्देश .व्यर्थ में समय गंवाने का समय व्यर्थ लोगों के पास ही होता है ..

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

कोई हिंदू मुसलमान दैनिक जीवन में नही होता बस राजनीती जो ना करादे वो कम है, आपने बहुत ही सुंदर लिखा और लिंक्स भी उपयोगी, आभार.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति .....

Rishabh Shukla ने कहा…

सुंद​​र लिंक.....बधाई|​
​​​​​​आप सभी का स्वागत है मेरे ब्लॉग "हिंदी कविता मंच" की नई रचना​​ ​​​​
​तुम सहते जाना ​पर, आपकी प्रतिक्रिया जरुर दे|​



https://hindikavitamanch.blogspot.in/2017/07/tum-sahte-jana.html

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आप सब का बहुत बहुत आभार |

Alaknanda Singh ने कहा…

''धर्म की दीमकें'' को शामिल करने के लिए धन्‍यवाद ब्‍लॉग बुलेटिन, आभार

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