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रविवार, 10 दिसंबर 2017

2017 का अवलोकन 26





पल्लवी त्रिवेदी 
लिखना खुद को ढूँढने जैसा महसूस कराता है हमेशा....कई बार लिखने के बाद खुद को बदला बदला सा पाती हूँ तो कभी अपने अन्दर छुपे हुए जज्बातों का बाहर बह निकलना हैरत में डाल देता है! बदलते मूड के साथ अपने अन्दर बैठे कई इंसानों को महसूस करती हूँ...

मैंने 
पल्लवी त्रिवेदी को हर रंग में देखा है, व्यंग्य, समानुभूति, खानाबदोशी,इश्क़  ... हर कैनवस पर गहरे रंगों में 

अस्सी का दौर और छतों का इश्क 
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मोहल्लों में प्यार की कितनी सारी कहानियां छतों से शुरू होती हैं !ढाई फीट की एक छोटी सी बाउंड्री वॉल से जुड़ी हुई छतें, आठ फीट की रोड के दोनों ओर टंगी छतें , सुबह शाम की ताज़ा ठंडी हवा में इश्क से महकती छतें , सर्दियों की दोपहरी में किताबों के पीछे से आँखों आँखों में बातें करती छतें, गर्मियों की रातों में साफ़ आसमान में सितारों के नीचे छुप छुप कर एक दूसरे को ताकती छतें !
आज मोबाइल और इन्टरनेट के युग में मुहब्बतें आसान हो गयी हैं ! लेकिन अस्सी के दौर में छतों की मुहब्बतों में आसानी भले न थी , रोमांच भरपूर था !ये वो दौर था जब बातें करना , मिलना इतना आसान न हुआ करता था ! एक मुलाक़ात के पहले महीनों निगाहें आपस में बात किया करती थीं !
"मम्मी ! पढ़ने जा रहे हैं छत पर" मार्च की परीक्षा से पहले की शामों में ६ बजते ही सभी घरों के बच्चे सज-धज कर छत पर पहुँच जाते ! मम्मी भी प्रसन्न कि "कितनी चिंता है मेरे लाल को पढाई की,टोकना नहीं पड़ता! " लडकियां रोज़ नए फैशन के कपडे पहन कर छत पर जाया करतीं ...लड़के भी टिप टॉप रहने में कोई कसर नहीं छोड़ते ! हाथ में पानी की बोतल,कभी कभी कांच के गिलास में रूह आफ्ज़ा भी छत पर घूम घूम कर ही पिया जाता ! किताब भी एक अतिरिक्त बोझ की तरह हाथ में झूलती रहती !जिनको बगल वाली या सामने वाली छत पर जीने की वजह मिल जाती वे अँधेरा होने तक एक दूसरे को बस बिन कुछ कहे निहारा करते ! जिनके नसीब में थोडा और इंतज़ार बदा होता वे छतों पर घट रहीं प्रेमकथाओं को सिलसिलेवार अपनी मेमोरी में दर्ज करते जाते जिससे अगले दिन दोस्तों पर अपनी किस्सागोई के झंडे गाढ़ सकें ! यूं आधे लोग इश्क फरमाते ...आधे आशिकों के मज़े लेते !कुल मिलाकर किताबें उसी पेज पर हवा खाकर वापस लौट आती !
अब अँधेरा हो गया, नीचे से मम्मी की आवाज़ आने लगी" चलो,नीचे आओ ,नीचे बैठकर पढो"
"हाँ मम्मी, आते हैं,अभी तो दिख रहा है"
और सच भी है,दूसरी छत का सब कुछ दिख रहा होता था ! गोली मारो किताब में लिखे को..कमबख्त कोर्स की किताब को कौन पूछे जब सामने मुहब्बत की किताब खुली हो मुहब्बत की किताब का यही फायदा है...इसके अक्षर पढ़ने के लिए उजाले का होना नितांत ग़ैर ज़रूरी है!खैर ज़्यादा देर तक तो माँ को भी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, आधे घंटे में नीचे उतरना ही पड़ता !
लेकिन कोई बात नहीं जहाँ चाह,वहाँ राह! अगर प्रेमी प्रेमिका का घर आमने सामने है तो सोने पे सुहागा! गर्मी के दिन हैं तो खिड़की खोलकर पढना तो लाज़मी है भाई...अब इसमें किसी का क्या दोष जो अगला भी खिड़की खोले ही बैठा है दूसरी खिड़की पर चाँद के उगने के इंतज़ार में ! और अगर दोनों में से किसी एक ने पहले खिड़की पर डेरा जमा लिया और दूसरे को आने में १० मिनिट ऊपर हो गए तो ये १० मिनिट तो क़यामत के होते ! जिसने इन दस मिनिटों का लुत्फ़ उठाया है वही इस तड़प को समझ सकता है !यह तय था कि दोनों में से जिसने इंतज़ार किया है वो अगले को ज़रूर तड़पायेगा ,दूसरी खिड़की खुलते ही शिकायत भरी आँखों से एक बार देखकर मुंह फेर लेगा और किताब में सिर घुसा देगा जैसे मरा जा रहा हो पढ़ने को,किताब को भी पता होता है कि शुद्ध नौटंकी कर रहा है! अब अगला तब तक किताब में घुसे सिर को देखता रहेगा जब तक कि सिर ऊपर उठाकर देख न ले...और जैसे ही एक बार नज़र मिली देर से आने वाला कुछ अजीब सा बेचारगी भरा मुंह बनाता जिसका अर्थ होता "प्लीज़ माफ़ कर दो,आगे से ऐसा नहीं होगा" एक बार ऐसा मुंह बनाने से बात नहीं बनती,कम से कम ३-४ बार बनाना पड़ता, तब जाकर दूसरा एक अजीब ऐंठ भरा मुंह बना कर प्रतिक्रिया देता जिसका अर्थ होता कि "ठीक है,ठीक है,इस बार माफ़ किया !अगली बार ध्यान रखना! फिर दोनों खुश होकर मुस्कुरा देते !सुबह के ५ बजे तक इसी प्रकार गहन अध्ययन कार्य चलता ! रात के साथ ही दो खिड़कियों पर प्रेम परवान चढ़ता रहता !
इसी प्रकार पढाई करते करते अब परीक्षा सर पर आ जातीं ! अभी तक तो बात करने का कोई बहाना नहीं था मगर अब काम शुरू होता प्रश्न बैंक, 20 question और गैस पेपरों का ,इनकी अदला बदली से प्रेम का एक नया अध्याय प्रारंभ होता !
खैर परीक्षा हुई,रिजल्ट आया! माता-पिता हैरान "बच्चे ने रात रात भर जाग कर पढाई की फिर भी नंबर इतना खराब" कॉपी जांचने वाला मुफ्त में गालियाँ खाता ,शिक्षा व्यवस्था को भी कोसा जाता ! लेकिन बेटे बेटी को कोई गम नहीं! रिजल्ट चाहे जैसा आया हो....प्यार की गाड़ी तो आगे बढ़ ही जाती !
अस्सी के दौर वाले कितने ही प्रेमी आज एक साथ उन्हीं छतों पर बैठकर अपने बच्चों के साथ शाम की चाय इकठ्ठा पीते हैं , कितने ही उस पुराने मोहल्ले में उसी पुरानी छत पर कुछ वक्त गुज़ारने चले जाते हैं और सामने की ख़ाली छत को एक दबी हसरत से देख वापस लौट आते हैं, कितने ही अब छतवाली को अपने नन्हे के साथ देखकर 'मामा' शब्द से आतंकित होकर पीछे मुड़ जाते हैं और कितने ही उन छतों के किस्सों को फेसबुक पर लिख डालते हैं कि शायद उन सैकड़ों लाइक्स में उस सामने की छत वाले ख़ास नाम का एक लाइक झिलमिला जाए !

5 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर। कुछ अलग सा अहसास।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

साफ़-सुथरा, मासूम सा सच

बेनामी ने कहा…

super

Shubham rai ने कहा…

कमाल की मनभावन रचना धन्यवाद

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